स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः
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40. ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार- दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़े, उसके करने को परोपकार कहता हूँ।
41. ‘स्वतन्त्र’ ‘परतन्त्र’ जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार आदि काम करने में स्वतन्त्र है।
42. ‘स्वर्ग’ नाम सुख-विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।
43. ‘नरक’ जो दुःख-विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का होना है।
44. ‘जन्म’ जो शरीर धरण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार का मानता हूँ।
45. शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोगमात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।
46. ‘विवाह’ जो नियमपूर्वक प्रसिद्धि से अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना वह ‘विवाह’ कहाता है।
47. ‘नियोग’ विवाह के पश्चात् पति के मर जाने आदि वियोग में, अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा आपत्काल में पुरुष स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ स्त्री वा पुरुष के साथ सन्तानोत्पत्ति करना।
48. ‘स्तुति’ गुण-कीर्तन, श्रवण और ज्ञान होना। इसका फल प्रीति आदि होते हैं।
49. ‘प्रार्थना’ अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिए ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।
50. ‘उपासना’ जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना; ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जानके ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना उपासना कहाती है, इसका फल ज्ञान की उन्नति आदि है।
51 ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’ जो-जो गुण परमेश्वर में हैं, उनसे युक्त और जो-जो नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर प्रशंसा करना ‘सगुणनिर्गुण स्तुति’, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिए परमात्मा का सहाय चाहना ‘सगुणनिर्गुण प्रार्थना’, और सब गुणों से सहित, सब दोषों से रहित परमेश्वर को मानकर, अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पणा कर देना, ‘सगुणनिर्गुणोपासना’ कहा है।
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