अपनी दिव्यता में जीते हुए दिव्य जीवन कैसे जीयें
संसार में रहने वाले व्यक्तियों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- एक समूह वह है जो केवल आध्यात्मिकता में रुचि रखते हैं और अपने जीवन का चरम उद्देश्य मुक्ति मानते हैं तथा दूसरा समूह वह है जो मानता है कि आध्यात्मिकता तो पलायनवादियों की मानसिकता है, जीवन का सच्चा उद्देश्य तो भौतिक सुख सुविधाओं व भौतिक धन के चरम को पाना है। वास्तव में वैदिक ऋषि इन दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के जीवन को पूर्ण सुखी व पूर्ण विकसित नहीं मानते हैं। उनका…
संसार में रहने वाले व्यक्तियों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- एक समूह वह है जो केवल आध्यात्मिकता में रुचि रखते हैं और अपने जीवन का चरम उद्देश्य मुक्ति मानते हैं तथा दूसरा समूह वह है जो मानता है कि आध्यात्मिकता तो पलायनवादियों की मानसिकता है, जीवन का सच्चा उद्देश्य तो भौतिक सुख सुविधाओं व भौतिक धन के चरम को पाना है। वास्तव में वैदिक ऋषि इन दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के जीवन को पूर्ण सुखी व पूर्ण विकसित नहीं मानते हैं। उनका कहना है- ‘‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’’।
अर्थात् धार्मिक व्यक्ति वही है, जिसके जीवन में अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों ही उत्कर्ष को प्राप्त हों तथा दोनों का सन्तुलन हो अर्थात् आधुनिक भाषा में कहें तो विकास और आध्यात्मिकता का संतुलन। इसके लिए हमें सच्चे अर्थों में विकास और मुक्ति को या आध्यात्मिकता को समझना होगा। विकास का अभिप्राय है हमारा सर्वप्रथम शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास व आत्मिक विकास व इन सबके विकसित होने पर भौतिक विकास तो निश्चित रूप से होता ही है। हमारे ऋषियों ने स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा देते हुए कहा-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
इस श्लोक में शारीरिक धातु, अग्नि आदि के सन्तुलन के साथ-साथ एक विशेष संकेत दिया है ‘प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः’ अर्थात् जिसकी इंद्रियाँ, मन, आत्मा प्रसन्न हैं, खुश हैं, वह व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ है। श्रद्धेय स्वामी जी महाराज के शब्दों में सच्चा विकास है- ‘जहाँ सुख का, शान्ति का, सफलता का, संतुष्टि का पूर्ण उत्कर्ष हो’ अर्थात् केवल मात्र बड़े-बड़े भवनों के निर्माण से, बड़े-बड़े मार्ग बनाने से या मात्र सबको साक्षर कर देने से ही पूर्ण विकास नहीं हो पायेगा, उसके लिए हमें जीवन मूल्यों का और मानवता का विकास करना होगा। पूर्ण विकसित व्यक्ति की यह पहचान है कि वह जीवन में कभी एक बार भी भगवान् के अनुशासन का, राष्ट्र के अनुशासन का व अपनी आत्मा के अनुशासन का अतिक्रमण या खंडन नहीं करता। जो व्यक्ति योग का अनुष्ठान नहीं करता वह शरीर में विटामिन्स की अपूर्णता (कमपिबपमदबल) को तो पहचान लेता है लेकिन मन में प्रेम, करुणा, भक्ति, ज्ञान व संवेदनाओं के स्तर पर जो अपूर्णता (कमपिबपमदबल) आ जाती है जो कि अनेक प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोगों का कारण बनती है, जिसके परिणाम स्वरूप झगड़े, ईष्र्या, द्वेष, घृणा, युद्ध, हताशा, डिप्रैशन, स्ट्रेस व चिड़चिड़ापन जैसे रोग हमें जकड़ लेते हैं, इस अपूर्णता को नहीं पहचान पाते हैं, इसलिए इनकी कोई दवा डाॅक्टरों के पास नहीं अपितु केवल योग के पास ही है। श्रद्धेय स्वामी जी महाराज बताते हैं कि हमें खंड-खंड में नहीं अपितु समग्रता से जीवन के सभी सत्यों को समझना होगा। इसी प्रकार हमें सच्ची आध्यात्मिकता व मुक्ति को भी समझना होगा।
श्रद्धेय स्वामी जी महाराज के शब्दों में-मुक्ति का शाब्दिक अर्थ होता है- छूटना, लेकिन प्रश्न है किससे छूटना? जिन अपूर्णताओं का (कमपिबपमदबल) हमने ऊपर वर्णन किया उनसे छूटना। यद्यपि इन अपूर्णताओं को हम अपनी आत्मा में आरोपित कर लेते हैं, बस यही बन्धन है और योग के माध्यम से इनसे छूट जाना ही मुक्ति है। वास्तव में तो आत्मा नित्य शुद्ध, बुद्ध मुक्त स्वभाव वाला ही है, अपने आप में पूर्ण ही है, उस पूर्णता से युक्त होकर, अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करना ही जीवन मुक्ति है। श्रद्धेय स्वामी जी महाराज बताते हैं- शरीर और मन के स्तर पर बन्धन या रोग हैं- गलत आहार, गलत विचार व गलत व्यवहार। व्यवहार को ही, गलत अभ्यास या गलत आचरण कह सकते हैं। आहार का एक कण भी जब गलत होता है तो वह पूर्ण ेजतनबजनतम को और विचार जब छोटे से अंश में भी गलत होता है तो पूरे बींतंबजमत को भ्रष्ट कर देता है। यही बन्धन के कारण बनता है। जिह्वा के साथ-साथ हम आँख, नाक, कान आदि अन्य इन्द्रियों से भी आहार ग्रहण करते हैं, जो सभी प्रकार का आहार शुद्ध, सात्विक व पवित्र हो, पवित्र भावना पूर्वक बनाया व खाया गया हो। इसी प्रकार मन को दुःख देने वाला विचार, हताशा, निराशा, घृणा, द्वेष, नफरत, डिप्रैशन, क्षोभ, बदले की भावना उत्पन्न करने वाला विचार ही वास्तव में बन्धन का कारण बनता है और इसके विपरीत संसार जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करने का विचार, सन्तोष, प्रसन्नता, उत्साह, खुशी, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा आदि उत्पन्न करने वाला भाव या विचार और वैसा ही आचरण, व्यवहार, अभ्यास या पुरुषार्थ जीवन-मुक्ति का कारण बनता है। हमारे अन्दर सब कुछ पूर्ण ही है बस उसका अनुभव व अहसास करते हुए उसका सदुपयोग हमें करना है। अभी उसके होते हुए भी हम उसका उपयोग नहीं करते हैं और जब हम इसका उपयोग करना शुरू करते हैं तो यह पूर्णता का बीज विकसित होकर विराट् होने लगता है। श्रद्धेय स्वामी जी महाराज कहते हैं कि- ‘आध्यात्मिकता एक सुपर साइन्स है’। यह पलायनवादियों की नहीं, अपितु परम पुरुषार्थी व्यक्तियों की विद्या है। हम पहले दुर्गुणों को बुलाते हैं, फिर हटाने का प्रयास करते हैं, साधना करते हैं। अतः दोहरी मेहनत और शून्य परिणाम होता है, इसकी बजाय हम सतत अपनी दिव्यता को जगाने का, दिव्यता को सतत बनाये रखने का और उस दिव्यता में प्रतिष्ठित होकर दिव्यतापूर्वक प्रत्येक कर्म असंग भाव से करने का अभ्यास करें। जब हम पहले ही दिव्य हैं, पूर्ण हैं, खुश हैं तो अब किसी कार्य से, किसी व्यक्ति से, किसी वस्तु से पूर्णता, दिव्यता या खुशी पाने की अपेक्षा नहीं करेंगे, यही अकाम होना है, निष्काम होना है, आप्तकाम होना है, दिव्यकर्म होना है और जीवन मुक्त होना है। अतः आइये हम सच्ची आध्यात्मिकता व सच्चे विकास से युक्त होकर एक दिव्य मानव की भाँंति दिव्यता में प्रतिष्ठित होकर दिव्य कर्म करें।