संन्यासी का संकल्प-

1.मैं ईश्वर की दिव्य संतान, ऋषि-ऋषिकाओं का वंशज एवं उनका आध्यात्मिक उत्तराधिकारी व प्रतिनिधि हूँ। भारत मेरी माँ है। अमृतस्य पुत्राः। माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। वेदद्ध ऋषीणां प्रतिरूपोऽहम्। तत्त्वमसि। अयमात्मा ब्रह्म। शिवोऽहम्। अहं ब्रह्मास्मि।। मैं अपने नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हुए आचरण की दिव्यता को सदा अक्षुण्ण रखूँगा/रखूँगी। 2.मैं गुरु चेतना, ऋषि चेतना, भागवतचेतना एवं आत्मचेतना के उच्च दिव्य भाव में ही सदा प्रतिष्ठित रहते हुए भीतर से पूर्ण शान्त एवं बाहर से पूर्ण पुरुषार्थ व परमार्थमय दिव्य आचरण व निष्काम सेवा करते हुए सबको…

1.मैं ईश्वर की दिव्य संतान, ऋषि-ऋषिकाओं का वंशज एवं उनका आध्यात्मिक उत्तराधिकारी व प्रतिनिधि हूँ। भारत मेरी माँ है।

अमृतस्य पुत्राः। माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। वेदद्ध ऋषीणां प्रतिरूपोऽहम्। तत्त्वमसि। अयमात्मा ब्रह्म। शिवोऽहम्। अहं ब्रह्मास्मि।।

मैं अपने नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हुए आचरण की दिव्यता को सदा अक्षुण्ण रखूँगा/रखूँगी।

2.मैं गुरु चेतना, ऋषि चेतना, भागवतचेतना एवं आत्मचेतना के उच्च दिव्य भाव में ही सदा प्रतिष्ठित रहते हुए भीतर से पूर्ण शान्त एवं बाहर से पूर्ण पुरुषार्थ व परमार्थमय दिव्य आचरण व निष्काम सेवा करते हुए सबको स्वधर्म में लगाकर धर्म की प्रतिष्ठा एवं अधर्म की निवृत्ति करुँगा/करुँगी।

3.गुरु की पूर्ण शरणागति में रहते हुए गुरु मर्यादा, शास्त्र मर्यादा एवं भगवान् के विधान की मर्यादा का एक बार भी अतिक्रमण नहीं करुँगा/करुँगी। प्रारब्ध, प्रमाद, अभ्यास दोष या अन्य किसी भी अत्यन्त प्रतिकूल स्थिति में भी अपना आपा निजताद्ध नहीं खोऊँगा/खोऊँगी और एकक्षण के लिए भी यदि प्रमाद हुआ तो उसके अगले ही क्षण विवेक वैराग्य पूर्वक पुनः अपने आत्मधर्म व अध्यात्म स्वरूप में लौट आऊँगा/आऊँगी। इस पूर्ण दिव्य पराधीनता एवं दिव्य स्वाधीनता में सदा प्रतिष्ठित रहूँगा/रहूँगी।

4.हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, अशुचिता, असंतोष, विलासिता, आत्मविमुखता एवं नास्तिकता- इन दस स्थूलदोषों से सदा मुक्त रहकर 5 यम एवं 5 नियमों का पूर्ण पालन करते हुए योग एवं कर्मयोग के मार्ग पर पूर्णपवित्रता से पूर्णपुरुषार्थ करते हुए मोक्षप्राप्ति के द्वारा जीवन में पूर्णता व आत्मबोध प्राप्त करुँगा/करुँगी।

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः। वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्। ओं सर्वं खल्विदं ब्रह्म।

इन दोनों भावों या साधनों से अपनी साधना को साधते हुए अपने अस्तित्व को पूर्ण शुद्ध करके आत्मबोध प्राप्त करुँगा/करुँगी।

5.मैं पारमार्थिक एवं व्यावहारिक भौतिक सत्यों के अनुरूप सम्यक् मति, भक्ति एवं कृति से मुक्ति या जीवनमुक्ति की स्थिति में रहूँगा/रहूँगी। गुरुनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा एवं ध्येयनिष्ठा में निरन्तरता- यही मेरे जीवन का प्रयोजन रहेगा।

6.मैं शुद्धज्ञान, शुद्धकर्म का अनुसरण करुँगा/करुँगी। केवल ज्ञान, केवल भक्ति एवं केवल कर्मादि की मिथ्या भ्रान्तियों में नहीं फसूँगा/फसूँगी। गुरुओं, ऋषियों, वेदादि शास्त्रों, सनातन सत्य प्रतीकों, राष्ट्रस्वाभिमान एवं स्वदेशी का पूर्ण सात्त्विक आग्रह रखते हुए एकत्व, सहअस्तित्व एवं विश्वबन्धुऋत्व की भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं वैज्ञानिक परम्पराओं के प्रति पूर्ण श्रद्धा व गौरव रखूँगा/रखूँगी।

7.‘‘पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता, मत्तः सर्वभूतेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा’’

इस संन्यास संकल्प को सदा स्मरण रखते हुए ‘सभी अविवेक पूर्ण कामनाओं एवं विषय भोगों से मुक्त रहकर संन्यासी होना दुनिया का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व व गौरव है’ इस सत्य को सदा स्मरण रखूँगा/रखूँगी। क्योंकि मेरी एक छोटी सी भूल से मेरी करोड़ों वर्ष पुरानी गौरवशाली महान् ऋषि परम्परा व संन्यास परम्परा कलंकित हो जायेगी और इसकी कभी भी क्षतिपूत्र्ति नहीं हो पायेगी। अतः मैं सदा जागरूक, गुरुनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ, ब्रह्मनिष्ठ रहकर संन्यास धर्म का प्रामाणिकता से पालन करुँगा/करुँगी।

 

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