स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः
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जो सदा विचारकर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सबका सुख चाहे, सो ‘न्यायकारी’ है, उसको मैं भी ठीक मानता हूँ।
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‘देव’ विद्वानों को और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।
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उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और ध्र्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्राी और स्त्राीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इससे विपरीत ‘अदेवपूजा’ इनकी मूतियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।
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‘शिक्षा’ जिससे विद्या, सभ्यता, ध्र्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यिादि दोष छूटें, उसको शिक्षा कहते हैं।
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‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाए, ऐतरेयादि ब्राह्मण-पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।
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‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरे, यानि कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्यादानादि शुभ कर्म हैं, उन्हीं को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।
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‘पुरुषार्थ प्रारब्ध् से बड़ा’ इसलिए है कि जिससे संचित प्रारब्ध् बनते, जिसके सुध्रने से सब सुध्रते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते है, इसी से प्रारब्ध् की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।
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‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख-दुःख हानि-लाभ में वत्र्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वत्र्तना बुरा समझता हूँ।
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‘संस्कार’ उसको कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कत्र्तव्य समझता हूँ। और दाह के पश्चात् मृतक के लिए कुछ भीन करना चाहिए।
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‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या, उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल ओषध् िकी पवित्राता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।
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