आयुर्वेद अमृत
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कालेऽश्नतोऽन्नं स्वदते तुष्टिः पुष्टिश्च वर्धते।
सुखेन जीर्यते न स्युः प्रतान्ताजीर्णजा गदाः।।
1. उचित काल- समुचित काल में खाया हुआ अन्न स्वादु लगता है, मन को सन्तुष्ट करता है तथा शरीर को पुष्ट करता है। उचित काल पर सेवित अन्न सुखपूर्वक जीर्ण हो जाता है तथा प्रतान्त (दोषों की वृद्धि से होने वाली ग्लानि) एवं अजीर्ण से उत्पन्न होने वाले रोग नहीं होते हैं। सुश्रुत में भी कहा है- ‘काले भुक्तं प्रीणयति’ (सु.सं.सू.-46.466)।
सात्म्यं नामाहुरौचित्यं सातत्येनोपसेवितम्।
आहारजातं यद्यस्य चानुशेते स्वभावतः।।
2. सात्म्य- सात्म्य औचित्य को कहते हैं। निरन्तर सेवन किया जाता हुआ जो आहार स्वाभाविक रूप से जिसके अनुकूल होता है, उसे उसके लिए सात्म्य कहते हैं। चरकसंहिता में कहा है- ‘सात्म्यं नाम तद् यदात्मन्युपशेते, सात्म्यार्थो ह्युपशयार्थेः’ (च.सं.वि.-1.20) अर्थात् सात्म्य उसे कहते हैं जो अपने लिए सुखकर हो। सात्म्य और उपशय परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं।
सात्म्याशी सात्म्यसाद्गुण्याच्छतं वर्षाणि जीवति।
न चाप्यनुचिताहारविकारैरुपसृज्यते।।
सात्म्य का सेवन करने वाला व्यक्ति सात्म्य के साद्गुण्य (श्रेष्ठ गुणों) के कारण सौ वर्ष तक जीवित रहता है तथा उसे अनुचित आहार से उत्पन्न होने वाले विकार नहीं होते हैं। सुश्रुतसंहिता में कहा है- ‘सात्म्यमन्नं न बाधते’ (सु.सं.सू.-46.466) अर्थात् सात्म्य अन्न शरीर मंे किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाता है।
लघूनां नातिसौहित्यं गुरूणामल्पशस्तथा।
मात्रावदश्नतो भुक्तं सुखेन परिपच्यते।।
स्वस्थयात्राग्निचेष्टानामविरोधि च तद्भवेत्।
3. उचित मात्रा- लघु पदार्थों को भी अत्यन्त सौहित्य से अर्थात् अति तृप्ति-पूर्वक नहीं खाना चाहिए तथा गुरु पदार्थों को भी अल्प मात्रा में सेवन करना चाहिए। इस प्रकार उचित मात्रा में भोजन करने वाले का खाया हुआ अन्न सुखपूर्वक पच जाता हे तथा वह शरीर की स्वस्थयात्रा (स्वस्थ व्यक्ति के दैनिक कार्य), जठराग्नि तथा शरीर की चेष्टाओं को विरोधी नहीं होता।
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