श्रद्धेय योगऋषि परम पूज्य स्वामीजी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य...

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आध्यात्मिकता का यथार्थ स्वरूप

आध्यात्मिकता के नाम पर अनेकों भ्रमपूर्ण भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं जैसे- आध्यात्मिक व्यक्ति सदा ध्यान में बैठा रहता है, सदा जप करता रहता है, कुछ काम नहीं करता, सात्विक समृद्धि या ऐश्वर्य वृद्धि हेतु कुछ काम नहीं करता इत्यादि प्रचलित भ्रमपूर्ण भ्रान्तियों के निवारण हेतु कुछ सूत्रों की चर्चा यहाँ कर रहे हैं। आध्यात्मिकता का पहला सूत्र है- सात्विक सफलता एवं सात्विक संकल्प।
1. सात्विक सफलता:
सात्विक सफलता का मूल है योग एवं कर्मयोग। सामान्य चेतना के लोग सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, भौतिक सुख, सफलता एवं भौतिक समृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करते दिखते हैं और आंशिक रूप से सफल होते हुए भी दिखते हैं। यह भौतिकवादी चिन्तन है। सात्विक आत्मायें भगवान् की प्रेरणा से, भगवान् की प्रसन्नता के लिए, भगवान् को ही सब ज्ञान, शक्ति एवं ऐश्वर्य का मूल स्रोत स्वीकार करके निष्काम भाव से निमित्त मात्र बनकर कर्मयोग करते हैं और परिणामत: सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, समृद्धि एवं सफलता आदि उपरोक्त सभी वस्तुएं उनको भी प्रचुर मात्रा में भगवान् की विविध विभूति या दिव्य ऐश्वर्य सात्विक सामर्थ्य के रूप में उपलब्ध होता है। पतंजलि योगपीठ का सात्विक सामर्थ्य एवं सफलता इसका मूर्त उदाहरण है। योगियों का यह समस्त सामर्थ्य एवं ऐश्वर्य मानवता की सेवा के लिए प्रयुक्त होती हैं। यही सच्चा अध्यात्मवाद है।
2. सात्विक संकल्प:
सामान्य चेतना के व्यक्ति भगवान् के विधान को समझ करके अपनी योजना बनाकर काम करते हैं और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए कर्म करते हुए दिखते हैं। मानवीय अल्पविवेक और दोषपूर्ण संकल्प होने के कारण यह मानवीय पुरुषार्थ कभी सुखदायी और कभी दुखदायी भी हो जाते हैं। इसके विपरीत उच्च चेतना से युक्त संन्यासी, योगी, जो भगवान् के संकल्प से युक्त होकर भगवान् की दिव्य योजना के तहत भगवान् के दिव्य संकल्पों को ही मूर्त रूप देता है और इस समष्टि को सर्वविध सात्विक सुख एवं समृद्धि उपलब्ध करवाता है। वह धरती पर शाश्वत सत्ता का मूर्त रूप होकर विचरण करता है। पतंजलि योगपीठ के साथ जुड़ी लाखों आत्मायें इसका मूर्त उदाहरण हैं।
3. दैवी एवं आसुरी सम्पदा:
गीता के 16वें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण दैवी सम्पदा के रूप में 26 गुणों का वर्णन करते हैं- निर्भयता, निर्मलता, ज्ञान में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, अहंकार स्वार्थ का त्याग, शान्ति, उदारभाव, दया, लालच रखना, कोमलता, अचापल्य, तेजस्विता, क्षमा, धृति, शुद्धता, द्रोह करना और घमण्ड करना यह दैवी सम्पदा है। इसी प्रकार इन गुणों से विपरीत आचरण भाव ही आसुरी सम्पदा के अन्तर्गत जाता है। इस आसुरी सम्पदा का फल बताते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं संश्रिता: मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका:।।
4. भगवान् का दर्शन एवं पूजा:
संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार किसी किसी रूप में भगवान् का दर्शन पूजा करना चाहता है। वेद एवं गीता में भगवान् का यही स्वरूप बताया है कि हम भगवान् को विश्वमय एवं विश्वातीत रूप में जानें। ईशा वास्यमिदं सर्वम्। सर्वं खलु इदं ब्रह्म: वासुदेव: सर्वम। यो मां पश्यति सर्वत्र। सर्वमचमयि पश्यति। इत्यादि। यहाँ भगवान् के दर्शन का अभिप्राय है- हम सब सम्बन्धों एवं सब प्राणियों में भगवान् के इस स्वरूप को देखने का बार-बार अभ्यास करें तथा इस जगत् से अतीत भी उसी की सत्ता का अनुभव करें, यही भगवान् का दर्शन है तथा अपनी अन्तर्रात्मा में जो भगवान् प्रेरणा देता है उसी के अनुरूप कर्म और आचरण करना यही भगवान् की पूजा है। स्वकर्मणा तमभ्यर्च।
 5. संगठन का ध्येय:
संसार में सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से जितने भी संगठन काम कर रहे हैं उनके द्वारा यद्यपि संसार में बहुत कुछ शुभ भी घटित हो रहा है लेकिन इन संगठनों में  कहीं-कहीं आंशिक रूप से और कहीं व्यापक रूप से एक बहुत बड़ा दोष भी दिखाई देता है, वह है कि हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हमारा विचार, विचारधारा एवं हमारे सिद्धान्त से ही इस दुनिया का कल्याण हो सकता है। इस कारण से पूरी दुनियाँ में भयंकर संघर्ष, खून-खराबा एवं युद्ध जैसी स्थिति भी बन जाती है। वेद एवं ऋषियों का  सिद्धान्त ‘‘मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँयह नहीं है, अपितु उनका सिद्धान्त है कि सभी सर्वश्रेष्ठ हैं एवं सभी एक ही ईश्वर की सन्तान हैं और यह सारा साम्राज्य भगवान् का ही है। राजनैतिक एवं साम्प्रदायिक रूप से देश दुनिया में जितनी भी सीमा बना दी गयी हैं, विरोध खड़े कर दिये गये हैं यह संसार के स्वार्थी लालची लोगों का एक अविवेकपूर्ण कृत्य ही है।
हम अपने संगठन को इन दोषों से मुक्त एक दिव्य संगठन के रूप में देखना चाहते हैं। हमारा मुख्य रूप से एक ही लक्ष्य है कि मनुष्य मात्र सभी क्षेत्रों में यथार्थ ज्ञान एवं श्रेष्ठ आचरण से युक्त हो मिथ्याज्ञान एवं तज्जन्य, दोषपूर्ण प्रवृत्तियों एवं दोषपूर्ण आचरण से मुक्त होकर दिव्य जीवन जीये। अन्तत: आचरण की दिव्यता पवित्रता ही किसी भी व्यक्ति का, किसी भी संगठन का, किसी भी समाज का या राष्ट्र का सबसे बड़ा ध्येय होना चाहिये।

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