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आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद :- आरोग्यं भोजनाधीनं भोज्यं विधिमपेक्षते। विधिर्विकल्पं भजते विकल्पस्तु प्रवक्ष्यते।। आरोग्य (स्वास्थ्य) भोजन पर निर्भर होता है तथा भोजन विधि की अपेक्षा रखता है। भोजनविधि उसके विकल्प पर आश्रित होती है, इसलिए हम भोजन के विकल्पों (विविध विधानों) का व्याख्यान करेंगे। स्वस्थानस्थेषु दोषेषु स्रोतः सु विमलेषु च। …
आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद :-
आरोग्यं भोजनाधीनं भोज्यं विधिमपेक्षते।
विधिर्विकल्पं भजते विकल्पस्तु प्रवक्ष्यते।।
आरोग्य (स्वास्थ्य) भोजन पर निर्भर होता है तथा भोजन विधि की अपेक्षा रखता है। भोजनविधि उसके विकल्प पर आश्रित होती है, इसलिए हम भोजन के विकल्पों (विविध विधानों) का व्याख्यान करेंगे।
स्वस्थानस्थेषु दोषेषु स्रोतः सु विमलेषु च।
जातायां च प्रकाड्क्षायामन्नकालं विदुर्बुधाः।।
अन्न का काल- दोषांे के अपने स्थान में स्थित होने पर, स्रोतों के मल रहित हो जाने पर तथा भोजन के प्रति इच्छा जागृत होने पर विद्वान् लोग अन्न का काल कहते हैं। अर्थात् जब तक दोष अपने स्थान में स्थित न हों, स्रोत मल रहित न हों तथा भोजन की इच्छा उत्पन्न न हो तब तक अन्न का सेवन नहीं करना चाहिए।
कालेऽश्नतोऽन्नं स्वदते तुष्टिः पुष्टिश्च वर्धते।
सुखेन जीर्यते न स्युः प्रतान्ताजीर्णजा गदाः।।
1. उचित काल- समुचित काल में खाया हुआ अन्न स्वादु लगता है, मन को सन्तुष्ट करता है तथा शरीर को पुष्ट करता है। उचित काल पर सेवित अन्न सुखपूर्वक जीर्ण हो जाता है तथा प्रतान्त (दोषों की वृद्धि से होने वाली ग्लानि) एवं अजीर्ण से उत्पन्न होने वाले रोग नहीं होते हैं। सुश्रुत में भी कहा है- ‘काले भुक्तं प्रीणयति’ (सु.सं.सू.-46.466)।
सात्म्यं नामाहुरौचित्यं सातत्येनोपसेवितम्।
आहारजातं यद्यस्य चानुशेते स्वभावतः।।
2. सात्म्य- सात्मय औचित्य को कहते हैं। निरन्तर सेवन किया जाता हुआ जो आहार स्वाभाविक रूप से जिसके अनुकूल होता है, उसे उसके लिए सात्म्य कहते हैं। चरकसंहिता में कहा है- ‘सात्म्यं नाम तद् यदात्मन्युपशेते, सात्म्यार्थो ह्युपशयार्थः’ (च.सं.वि.-1.20) अर्थात् सात्म्य उसे कहते हैं जो अपने लिए सुखकर हो। सात्म्य और उपशय परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं।
सात्म्याशी सात्म्यसाद्गुण्याच्छतं वर्षाणि जीवति।
न चाप्यनुचिताहारविकारैरुपसृज्यते।।
सात्म्य का सेवन करने वाला व्यक्ति सात्म्य के साद्गुण्य (श्रेष्ठ गुणों) के कारण सौ वर्ष तक जीवित रहता है तथा उसे अनुचित आहार से उत्पन्न होने वाले विकार नहीं होते हैं। सुश्रुतसंहिता में कहा है- ‘सात्म्यमन्नं न बाधते’ (सु.सं.सू.-46.466) अर्थात् सात्म्य अन्न शरीर में किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाता है।