आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद:-

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प्राड्मुखोऽश्नन्नरो धीमान् दीर्घमायुरवाप्नुते। तूष्णीं सर्वेन्द्रियाह्लादं मनःसात्म्यं च विन्दति।। पूर्वाभिमुख होकर भोजन करना- पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने वाला बुद्धिमान् व्यक्ति दीर्घ आयु को प्राप्त करता है। शान्त (चुपचाप) होकर भोजन करने वाला व्यक्ति सब इन्द्रियों की प्रसन्नता तथा मन की सात्म्यता (अनुकूलता) को प्राप्त करता है। एतदेव च मात्रां च पक्तिं युक्तिं च तन्मनाः। तस्मात्तत्प्रवणोऽजल्पन् स्वस्थो भुंजीत भोजनम्।। तन्मना होकर भोजन करना- तन्मय (दत्तचित्त) होकर भोजन करने वाला व्यक्ति पूर्वोक्त गुणों को प्राप्त करता है एवं मात्रा, पाचन शक्ति तथा युक्ति का ध्यान रखता है। इसलिए स्वस्थ…

प्राड्मुखोऽश्नन्नरो धीमान् दीर्घमायुरवाप्नुते।
तूष्णीं सर्वेन्द्रियाह्लादं मनःसात्म्यं च विन्दति।।

पूर्वाभिमुख होकर भोजन करना- पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने वाला बुद्धिमान् व्यक्ति दीर्घ आयु को प्राप्त करता है। शान्त (चुपचाप) होकर भोजन करने वाला व्यक्ति सब इन्द्रियों की प्रसन्नता तथा मन की सात्म्यता (अनुकूलता) को प्राप्त करता है।

एतदेव च मात्रां च पक्तिं युक्तिं च तन्मनाः।
तस्मात्तत्प्रवणोऽजल्पन् स्वस्थो भुंजीत भोजनम्।।

तन्मना होकर भोजन करना- तन्मय (दत्तचित्त) होकर भोजन करने वाला व्यक्ति पूर्वोक्त गुणों को प्राप्त करता है एवं मात्रा, पाचन शक्ति तथा युक्ति का ध्यान रखता है। इसलिए स्वस्थ व्यक्ति को भोजन में मन लगाकर तथा जल्पन (अधिक वार्तालाप) न करते हुए भोजन करना चाहिए।

आस्वाद्यास्वाद्य योऽश्नाति शुद्धजिह्ेवेन्द्रियो रसान्।
स वेत्ति रसनानात्वं विशेषांश्चाधिगच्छति।।

आस्वादनपूर्वक भोजन करना- जो शुद्ध रसनेन्द्रिय वाला मनुष्य अच्छी प्रकार रसों का स्वाद ले लेकर भोजन करता है, वह भोजनगत रसों की विविधता का अनुभव अच्छी प्रकार से करता है तथा उनके गुणों को प्राप्त कर लेता है।

अतिद्रुतं हि भुंजानो नाहारस्थितिमाप्नुयात्।
भोज्यानुपूर्वीं नो वेत्ति न चान्नरससम्पदम्।।
नातिद्रुताशी तत्सर्वमनूनं प्रतिद्यते।
प्रसादमिन्द्रियाणां च तथा वातानुलोमताम्।।

अतिद्रुत भोजन न करना- अति शीघ्र भोजन करने से आहार अपनी स्थिति में नहीं पहुंचता है। वह भोज्यानुपूर्वी अर्थात् भोजन की क्रमिकता (कौन-सा पदार्थ पहले तथा कौन-सा पश्चात् खाना चाहिए, इस प्रकार की आनुपूर्वी) को नहीं जान पाता है। शीघ्रता के कारण अन्नरस की उत्कृष्टता (गुणसम्पदा) का अनुभव नहीं कर पाता है। जबकि अतिशीघ्रता को छोड़ धीरजपूर्वक (शान्ति से) भोजन करने वाला व्यक्ति उक्त सभी गुणों को अच्छी तरह से प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार भोजन करने से उसकी इन्द्रियाँ प्रसन्न होती हैं तथा वात का अनुलोमन (मलद्वार से निर्गमन) हो जाता है।

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