आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद
स्वस्थानस्थेषु दोषेषु स्रोतःसु विमलेषु च। जातायां च प्रकाड्क्षायाम न्नकालं विदुर्बुधाः।। अन्न का काल- दोषों के अपने स्थान में स्थित होने पर, स्रोतों के मल रहित हो जाने पर तथा भोजन के प्रति इच्छा जागृत होने पर विद्वान् लोग अन्न का काल कहते हैं। अर्थात् जब तक दोष अपने स्थान में स्थित न हों, स्रोत मल रहित न हों तथा भोजन की इच्छा उत्पन्न न हो तब तक अन्न का सेवन नहीं करना चाहिए। कालेऽश्नतोऽन्नं स्वदते तुष्टिः पुष्टिश्च वर्धते। सुखेन जीर्यते न स्युः प्रतान्ताजीर्णजा गदाः।। अब भोजन के 24 विकल्पों का…
स्वस्थानस्थेषु दोषेषु स्रोतःसु विमलेषु च।
जातायां च प्रकाड्क्षायाम न्नकालं विदुर्बुधाः।।
अन्न का काल- दोषों के अपने स्थान में स्थित होने पर, स्रोतों के मल रहित हो जाने पर तथा भोजन के प्रति इच्छा जागृत होने पर विद्वान् लोग अन्न का काल कहते हैं। अर्थात् जब तक दोष अपने स्थान में स्थित न हों, स्रोत मल रहित न हों तथा भोजन की इच्छा उत्पन्न न हो तब तक अन्न का सेवन नहीं करना चाहिए।
कालेऽश्नतोऽन्नं स्वदते तुष्टिः पुष्टिश्च वर्धते।
सुखेन जीर्यते न स्युः प्रतान्ताजीर्णजा गदाः।।
अब भोजन के 24 विकल्पों का व्याख्यान किया जाएगा।
1. उचित काल- समुचित काल में खाया हुआ अन्न स्वादु लगता है, मन को सन्तुष्ट करता है तथा शरीर को पुष्ट करता है। उचित काल पर सेवित अन्न सुखपूर्वक जीर्ण हो जाता है तथा प्रतान्त (दोषों की वृद्धि से होने वाली ग्लानि) एवं अजीर्ण से उत्पन्न होने वाले रोग नहीं होते हैं। सुश्रुत में भी कहा है- ‘काले भुक्तं प्रीणयति’ (सु.सं.सू.-46.466)ं
सात्म्यं नामाहुरौचित्यं सातत्येनोपसेवितम्।
आहारजातं यद्यस्य चानुशेते स्वभावतः।।
2. सात्म्य- सात्म्य औचित्य को कहते हैं। निरन्तर सेवन किया जाता हुआ जो आहार स्वाभाविक रूप से जिसके अनुकूल होता है, उसे उसके लिए सात्म्य कहते हैं। चरकसंहिता में कहा है- ‘सात्म्यं नाम तद् यदात्मन्युपशेते, सात्म्यार्थो ह्युपशपार्थः’ (च.सं.वि.-1.20) अर्थात् सात्म्य उसे कहते हैं जो अपने लिए सुखकर हो। सात्म्य और उपशय परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं।