स्वदेश स्वाभिमान - Swadesh Swabhiman

मनुष्य की सबसे बड़ी भूल या कमजोरी

परमात्मा व प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है मनुष्य- स्त्री व पुरुष दोनों ही। परन्तु अनन्त ज्ञान, संवेदना व शक्ति सामथ्र्य के होते हुए भी मानव महामानव व पुरुष महापुरुष, युगपुरुष क्यों नहीं हो पाता। नर से नारायण या जीवन से ब्रह्म की यात्रा में कौन सी मानवीय भूलें या दुर्बलताएं हैं, हम यहाँ संकेत कर रहे हैं। मुझे विश्वास है कि हमारे भाई-बहन इन दोषों से बाहर निकलकर अपने जीवन को समग्रता के साथ समझकर स्वयं को पूर्ण विकसित करेंगे – 1. प्रमाद। 2. अनप्रोडक्टिव या अनुत्पादक श्रम। 3. स्व…

परमात्मा व प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है मनुष्य- स्त्री व पुरुष दोनों ही। परन्तु अनन्त ज्ञान, संवेदना व शक्ति सामथ्र्य के होते हुए भी मानव महामानव व पुरुष महापुरुष, युगपुरुष क्यों नहीं हो पाता। नर से नारायण या जीवन से ब्रह्म की यात्रा में कौन सी मानवीय भूलें या दुर्बलताएं हैं, हम यहाँ संकेत कर रहे हैं। मुझे विश्वास है कि हमारे भाई-बहन इन दोषों से बाहर निकलकर अपने जीवन को समग्रता के साथ समझकर स्वयं को पूर्ण विकसित करेंगे –
1. प्रमाद।
2. अनप्रोडक्टिव या अनुत्पादक श्रम।
3. स्व का अज्ञान। अपने भीतर सन्निहित असीम ज्ञान, अनन्त प्रेम व अपरिमित सामथ्र्य को न तो पूरा जानना, न उसे पूरा जगाना। जीवन रूपी बीज को वृक्षरूप नहीं देना।
4. निराशा, कुण्ठा या निरुत्साह में जीना।
5. प्राथमिकताओं के चयन में अनिर्णय या अनिश्चय की स्थिति में रहना। परिणामतः शुभ संकल्प, पुरुषार्थ व अभ्यासों की निरन्तरता नहीं बनना।
इन पाँच मुख्य दोषों, दुर्बलताओं या भूलों के कारण मनुष्य स्वयं तथा समष्टि के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाता और भगवान् के इस महान् अस्तित्व में उसे जो एक दिव्य भूमिका निभानी चाहिए उससे वह वंचित रह जाता है।
मेरा तथा पूज्य आचार्य श्री बालकृष्ण जी सहित पतंजलि संस्था, संगठन तथा हमारे समस्त पुरुषार्थ का प्रमुख प्रयोजन यही है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी महिमा को समझे, भगवान् की महिमा, भारत की महिमा तथा इस पूरे अस्तित्व की महिमा को समग्रता से समझे तथा अपने दिव्य ईश्वरीय कत्र्तव्य या उत्तरदायित्व को निभाए। हमारे प्रयत्न की विभिन्न धाराओं से आंशिक या समग्र रूप से यह कार्य अवश्य घटित हो रहा है तथा हमें पूर्ण विश्वास है कि एक दिन समष्टि में दिव्यता अवश्य घटित होगी, प्रथम कुछ व्यक्तियों में तथा धीरे-धीरे समष्टि में भी, क्योंकि मूल मांग तो सभी आत्माओं की पूर्ण दिव्यता व पूर्णता की ही है।

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