संन्यासी होना दुनियाँ का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व है और मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। समस्त ऋषि ज्ञान परम्परा व सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए यह गौरव का विषय है कि लोक कल्याण मात्रा अर्थात् परमार्थ मात्रा की भावना से प्रतिष्ठापित संस्थान पतंजलि योगपीठ मंष परमश्रद्धेय श्री स्वामी जी महाराज की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से प्रथम बार संन्यास दीक्षा का महान् आयोजन किया जा रहा है। संन्यास परम्परा हमारे पूर्वज ऋषि-ऋषिकाओं की वह आदर्श गरिमामयी और वरणीय परम्परा है जिसमें ‘वसुधेव कुटुम्बकम्’ की भावना को आधर बनाकर एक पिण्ड में सिमटी हुई चेतना को पूरे ब्रह्माण्ड में विस्तृत कर देना होता है अर्थात् ये मार्ग Self Realization से Collective Realization का, व्यष्टि से समष्टि के उत्थान का है। एक सच्चे संन्यासी का हृदय सदा समष्टि के प्रति उद्घाटित, करुणापूर्ण, वात्सल्य पूर्ण और प्रेम रहता है। वह समष्टि को सदा पक्षपात रहित, न्यासपूर्ण, यथार्थ और समग्रता से देखता और आचरण करता है। वह सदा ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्’ जैसी पवित्रा और कल्याणकारी भावनाओं से आप्लावित रहकर अपना, अपने परिवार का, समाज का, राष्ट्र का और समस्त विश्व का कल्याण करता है।
परम पूज्य प्रातः स्मरणीय श्रद्धेय स्वामी जी महाराज का स्वप्न है कि इस ध्रती पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज, राष्ट्र और समस्त विश्व उन्नति के चरम उत्कर्ष को छुए परन्तु उसकी नींव आध्यात्मिक हो क्योंकि बिना अध्यात्म के उन्नति वास्तविक उन्नति नहीं अपितु विनाशोन्मुखता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अध्यात्म रहित विकास उस प्रकृति के प्रति घोर अन्याय है जिसने प्राणिमात्रा को जीवन जीने योग्य वातावरण दिया क्योंकि जियो और जीने दो, इस विचार को परिष्कृत करके ऐसे समझना चाहिये कि जीने दो और जियो। सबकी उन्नति में आत्मोन्नति को देखना, उसकी इच्छा करना और एक आध्यात्मिक विश्व बनाने के लिए सर्वात्मना समर्पित होकर अहर्निश पुरुषार्थरत रहना ही हमारी वास्तविक गुरुदक्षिणा है। श्रद्धेय श्री स्वामी जी का सपना एक आध्यात्मिक भारत व आध्यात्मिक विश्व बनाने का है और गुरु के ऐसे पवित्रा और सर्वमंगलकारी सपने को अपना सपना बनाकर उसके लिए जीने से बढ़कर जीवन में और कुछ नहीं है। हमारे पूर्वज ऋषि-ऋषिकाओं की पवित्रा सनातन, गरिमामयी और वरणीय संन्यास परम्परा एक आध्यात्मिक व्यक्ति, आध्यात्मिक परिवार, आध्यात्मिक समाज और एक आध्यात्मिक भारत बनाने के लिए आधर है। शास्त्रा कहते हैं कि जिस कुल, खानदान में एक भी व्यक्ति संन्यासी हो जाता है तो उसका सारा कुल पवित्रा हो जाता है। जननी कृतार्थ हो जाती है और उसके संन्यास के प्रताप से सम्पूर्ण वसुन्ध्रा पुण्यों से भर जाती है।
कुलं पवित्रां जननी कृतार्था, वसुन्ध्रा पुण्यमयी च तेन।
असारसंवित् सुखसागरेस्मिन्, लीनं परे ब्रह्मणि यस्यचेताः।।
परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की प्रेरणा व अनन्त आशीर्वाद से भारतवर्ष को जगदगुरु पद पर पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए व एक आध्यात्मिक भारत के निर्माण के लिए पतंजलि योगपीठ के द्वारा पिछले लगभग 25 वर्षों से माँ भारती की सेवा में अहर्निश सेवारत रहते हुए अनेक प्रयास किये गए। उन्हीं प्रयासों में एक वैदिक ऋषि ज्ञान परम्परा के प्रकल्प के रूप वैदिक गुरुकुलम् व वैदिक कन्या गुरुकुलम् हैं जहाँ ऐसी दिव्य आत्माएं ऋषि ज्ञान परम्परा को आत्मसात् करती हैं जिनका लक्ष्य है इस समष्टि को दिव्यता से भर देना और बदले में अपने लिए कुछ न चाहना। अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम से सीधे संन्यासाश्रम का वरण करना और ब्रह्मचर्य काल में अर्जित शक्तियों का उपयोग समष्टि के कल्याण के लिए करना। ब्राह्मण ग्रन्थ में कहा है-
यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।
वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्।।
महर्षि दयानन्द ने भी सत्यार्थ प्रकाश में कहा है कि- ‘‘जो ब्रह्मचर्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।’’ क्योंकि ब्रह्मचर्याश्रम में संचित समस्त शक्तियाँ बिना बिखरे ही पूर्ण रूपेण् लोकर कल्याण में लग जाती है।
अत्यन्त प्रसन्नता व गौरव का विषय है कि इस वर्ष श्रद्धेय श्री स्वामी जी महाराज के संन्यास दीक्षा दिवस अर्थात् रामनवमी के पावन अवसर पर लगभग 88 भाई-बहन संन्यास की दीक्षा लेकर पतंजलि योगपीठ अर्थात् ऋषि-ऋषिकाओं के संकल्पों को मूत्र्त रूप देने के लिए संकल्पित हो रहे हैं।
ऋषियों-महर्षियों की पावनी संन्यास परम्परा की शृंखल में पतंजलि योगपीठ के द्वारा किया गया ये पवित्रा प्रयास भविष्य में भारतवर्ष को विश्व पटल पर एक आध्यात्मिक और समृद्ध राष्ट्र के रूप में स्थापित करने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। वेद में भी ये उद्घोष किया है-