28. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या, उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल ओषध् िकी पवित्राता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।
29. जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं, वैसे ही मैं भी मानता हूँ।
30. ‘आÕर्यावत्र्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदिसृष् िसे आÕर्य लोग निवास करते हैं। परन्तु इसकी अवध् िउत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्म नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है, उसको ‘आÕर्यावत्र्त’ कहते और जो इनमें सदा रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं।
31. जो सांगोपांग वेदविद्याओं का अध्यापक, सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे, वह ‘आचार्य’ कहाता है।
32. ‘शिष्य’ उसको कहते हैं कि जो सत्यशिक्षा और विद्या ग्रहण करने योग्य, ध्र्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।
33. ‘गुरु’ माता-पिता और जो सत्य को ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे, वह भी ‘गुरु’ कहाता है।
34. ‘पुरोहित’ जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष होवे।
35. ‘उपाध्याय’ जो वेदों का एकदेश वा अंगों को पढ़ाता हो।
36. ‘शिष्टाचार’ जो ध्र्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्या ग्रहण कर, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहलाता है।
37. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।
38. ‘आप्त’ जो यथार्थवक्ता, ध्र्मात्मा, सबके सुख के लिए प्रयत्न करता है, उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।
39. ‘परीक्षा’ पाँच प्रकार की है। इसमें से प्रथम जो ईश्वर उसके गुण-कर्म-स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टिक्रम, चैथी आप्तों का व्यवहार और पाँचवीं अपने आत्मा की पवित्राता विद्या, इन पाँच परीक्षाओं से सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिए।