हाल ही में पतंजलि विश्वविद्यालय के सभागार में युवा धर्म संसद का आयोजन किया गया। सच में युवा धर्म संसद शब्द के अर्थ में ही बहुत कुछ छिपा है। धर्म, युवा और संसद- इन तीन शब्दों की अलग-अलग बड़ी-बड़ी व्याख्या की जा सकती है। शास्त्रों में एक बात कही है कि जब दम हो, सामथ्र्य हो, जज्बा हो, ऐसी भावना हो कि मैं दुनिया को किधर से किधर पलट सकता हूँ। जब आप अपने आप को ऐसे जज्बात से ओतप्रोत, अंदर से ऊर्जान्वित, शक्ति से परिपूर्ण पाते हैं तो उस समय यदि हमारी दिशा और गति सही ओर हो गई तो हमें लक्ष्य अवश्यमेव प्राप्त होता है। अन्यथा उस समय यदि सही मार्ग पर नहीं गए तो बुढ़ापे में सब व्यर्थ है क्योंकि तब कुछ करने का सामथ्र्य रहता ही नहीं है।
समस्त वसुधा को अपना मानने का सामथ्र्य केवल सनातन में:
हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम् की है। शब्द बहुत छोटा है किन्तु इसका अर्थ बहुत गहरा है कि समस्त वसुधा को अपना मानने का सामथ्र्य केवल सनातन में है, अंयत्र कहीं भी नहीं है। यदि युवा धर्म संसद के कार्य को संक्षिप्तिकरण के साथ निवेदित करें तो हमारा पहला लक्ष्य वसुधैव कुटुम्बम् की भावना को विश्व में स्थापित करना और दूसरा लक्ष्य उसको स्थापित होने में जो बाधक तत्व हैं उन्हें सही रास्ते पर लेकर आना। आप समझ ही गए होंगे कि बाधक तत्व कौन हैं, जो टुकड़े-टुकड़े में बँटे हुए हैं।
हम तो उदार हैं, हमने प्रार्थना करते हुए भी यही कहा है कि-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
अर्थात् सुखी व निरोगी रहें। हमने अपने लिए, पड़ोसी के लिए, धर्म के लिए, प्रांत के लिए, मत के लिए, पंथ के लिए, जाति के लिए, मजहब के लिए तो कुछ नहीं मांगा। सर्वे में तो सब आते हैं। सर्वे में धर्मात्मा, पापी, असुर, विधर्मी सब प्रकार के लोग आते हैं। तो हमारी इतनी उदारता, विशालता, व्यापकता है। परन्तु उस उदारता को बनाए रखने के लिए भी विश्व में सर्वे भवन्तु सुखिनः... शास्त्रों में जो उद्घोषणाएँ हमारे ऋषियों ने की, महापुरुषों ने की, उस उद्घोषणा को, उस शब्द को शक्ति के रूप में क्रियान्वयन करना हमारा परम कत्र्तव्य है। हमारे श्रद्धेय विवेकानन्द जी ने उपनिषद् के वाक्य उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत को प्रचारित किया था कि उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। उठो और जागो दो अलग-अलग शब्द हैं। कई बार हमारी आँखें खुली होती हैं और हम सोचते हैं कि हम जगे हैं किन्तु हम सोए हुए होते हैं।
अभाव का नाम त्याग नहीं:
युवा में ऊर्जा होती है, एक जज्बा होता है, परन्तु जब त्याग की बात आती है तो उसकी विभिन्न परिभाषाएँ हैं। जब हमारे पास कुछ कम होता है तो हमें लगता है कि हम बहुत कुछ त्याग कर सकते हैं। अभाव का नाम त्याग नहीं है। जब एक बच्चा प्रतिस्पर्धा की तैयारी करता है तो सोचता है कि मैं प्रशासनिक सेवा में जाऊँगा, मैं ज्यूडिशियरी में जाऊँगा या विभिन्न सेवाओं में जाऊँगा तो मैं देश को बदलूँगा। मैं सादगी के साथ धर्म पूर्वक अपने जीवन को आगे बढ़ाऊँगा। हमने बहुत से युवाओं को देखा है जिनमें ट्रेनिंग काल में देश को बदलने का एक जज्बा होता है किन्तु 10-15 वर्ष बाद देखते हैं कि वो देश को तो नहीं बदल पाते किन्तु देश में व्याप्त विकृति का हिस्सा बन जाते हैं। यह किसी राजनैतिक पार्टी की बात नहीं अपितु व्यक्ति की बात है कि राजनेताओं के भी यही हाल हैं, जब तक पद नहीं है तब तक बहुत अच्छे हैं और जैसे ही पद मिल जाता है उनका व्यक्तित्व ही बदल जाता है। तो देश को कौन बचाएगा, कौन देश को आगे बढ़ाएगा। बहुत पीड़ा होती है यह सोचकर।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
आप यह माने कि भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति, उनकी ऊर्जा आपकी आत्मा के भीतर उतर चुकी है और आपको इस कर्तव्य का, इस दायित्व का निर्वहन करना है। हम सब महापुरुषों का सम्मान करते हैं, आध्यात्मिकता में आरूढ़ हैं, पूज्य संतों के प्रति भी हमारी श्रद्धा है, निष्ठा है परन्तु यह भी मन में भाव हो कि हममें से न जाने कितने पूर्व जन्म में ऋषि, संत या महापुरुष रहे होंगे। हममें उन्हीं पूर्वजों की आत्मा उतर कर आई है। उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने का प्रयास करो। हमें जैसा देश चाहिए हमें भी उसके अनुरूप वैसा ही बनना होगा। हम चाहते हैं कि देश में राम, कृष्ण पैदा हों परन्तु हमारे आस-पड़ोस में। हमें स्वयं राम, कृष्ण बनना होगा, उनके आचरण को जीना होगा, उनकी मर्यादा का पालन करना होगा। यदि हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
संकल्प में अपरिमित शक्ति है:
शास्त्रों में बहुत सारी बातें सामान्य रूप में कही गई हैं। यह भी कहा गया है कि जैसा तुम अपने लिए नहीं चाहते, वैसा व्यवहार तुम दूसरों के साथ न करो। पर समाज में उल्टा ही दिख रहा है। शास्त्रों में पशु के जो लक्षण बताए गए हैं, वो ही देखने को मिल रहे हैं जैसे- बलवान से डरना और कमजोर को डराना। परम्परा ऊपर से नीचे की ओर चली आ रही है। देश, समाज व परिवार में प्रायः यही देखने को मिल रहा है। हमारी मर्यादा हमें यह नहीं सिखाती है। इसीलिए अंधेरे से मत डरो, तमस जितना भी ज्यादा क्यों न हो, अपनी अंतर्चेतना को जाग्रत करते हुए उस अंधेरे में दीपक बनकर जितना प्रकाश प्रकाशित कर सकें, अवश्य करें। इस संकल्प के साथ अपने जीवन को आगे बढ़ाएँ। संकल्प में अपरिमित शक्ति है।
स्वदेशी के जागरण का संकल्प:
हम गुरुकुल में पढ़ते थे, स्वदेशी व राष्ट्रवाद का बड़ा आग्रह था। हमें कहा गया कि विदेशी वस्तुओं का प्रयोग नहीं करना है। तभी से मन में भाव था कि कहीं पर भी जाएँ, अपने स्वेदशी के लिए प्रयास करेंगे। जब हम शिक्षा ग्रहण कर गुरुकुल से बाहर आए उस समय लोगों के मन में यह भाव था कि स्वदेशी वस्तुएँ अच्छी नहीं होती, विदेशी वस्तुओं के प्रति विशेष आकर्षण था। हमको यह देखकर पीड़ा होती थी कि आजादी के इतने वर्षों के पश्चात् भी देश में कोई ऐसी कम्पनी खड़ी नहीं हो सकी जो दैनंदिन उपयोग में आने वाली वस्तुओं का उत्पादन कर सके। महात्मा गांधी, विनोबा भावे से लेकर हमारे वीर, शहीद, क्रांतिकारी, महात्माओं ने अपने-अपने सामथ्र्य से स्वदेशी की पुनस्र्थापना के लिए भरसक प्रयास के बाद भी स्वदेशी का भाव क्यों लोगों के मन में जाग्रत नहीं हो सका, ये बातें हमारे मन को कचोटती थी। तब पूज्य स्वामी जी के नेतृत्व में हमने योग आयुर्वेद का आंदोलन प्रारंभ किया। ट्रस्ट की भूमि के लिए 12,500 रुपए की आवश्यकता थी, वह भी हमारे पास नहीं थे। हमारे पास एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं था जो इतने पैसे हमें दे सके। हमने दो व्यक्तियों से 5-5 हजार रुपए लिए और 2500 रुपए हमारे पास थे, उनको मिलाकर ट्रस्ट की स्थापना की गई।
पतंजलि बना स्वदेशी की पुनस्र्थापना का पर्याय:
आज पतंजलि विविध सेवा कार्यों को विश्वव्यापी बनाकर स्वदेशी की पुनस्र्थापना के पर्याय या उदाहरण के रूप में आपके मध्य है। पतंजलि के भिन्न-भिन्न प्रकार के बहुत सारे सेवा कार्य हैं। पतंजलि के बड़े कार्यो की बात करें तो आयुर्वेद को आज एविडेंस बेस्ड मेडिसिन के रूप में स्थापित करने का जो भगीरथ प्रयास है, वह पतंजलि के माध्यम से ही हो रहा है। सरकार अपना काम कर रही है, संस्थाएँ अपना काम कर रही हैं। हम किसी से तुलना नहीं कर रहे। इसके साथ-साथ पतंजलि शिक्षा, चिकित्सा, खाद्य उत्पाद, कृषि तथा यहाँ तक की सूचना एवं प्रौद्योगिकि में भी देश को स्वदेशी से आत्मनिर्भरता की ओर ले जा रहा है। पतंजलि का स्वदेशी अभियान अब गति पकड़ चुका है।
विधि पर स्थिर रहें और निषेध की ओर प्रवृत्त न हों:
यदि जीवन में आगे बढना है तो हमें अपनी भूमिका स्वयं तय करनी होगी। स्वयं पर कभी शंका मत करना क्योंकि जो स्वयं हार मान लेता है उसे कोई विजय नहीं दिला सकता। इसलिए चाहे परिस्थितियाँ विपरीत ही क्यों न हों, कभी हार मत मानना। प्रतिकूलताएँ तो आएँगी और अपना काम करेंगी, संघर्ष को आना होगा तो आएगा और वह अपना काम करेगा।
अपनी सुसुप्त चेतना को स्वदेशी के संकल्प के साथ जाग्रत करके राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार करें:
यह तकनीक का युग है, सर्वप्रथम तकनीक में भी स्वदेशी खोजने का प्रयास करना चाहिए और यदि कोई विकल्प न मिले तो विदेशी उत्पाद प्रयोग कर लेना चाहिए। परन्तु शून्य तकनीक से बने उत्पादों के लिए तो स्वदेशी का संकल्प लेना ही होगा। साबुन, शैम्पू, खाने-पीने की वस्तुएँ, पानी की बोतल इनमें कौन सी तकनीक है, कौन सा राॅकेट साइंस है जो हम इन पर निर्भर हों। इन छोटे-छोटे संकल्पों से देश का पैसा देश में रहेगा और देश उन्नति के पथ पर आरूढ़ होगा। अपनी सुसुप्त चेतना को एक संकल्प के साथ जाग्रत करके राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार करें।