· जो सदा विचारकर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सबका सुख चाहे, सो ‘न्यायकारी’है, उसको मैं भी ठीक मानता हूँ।
‘देव’विद्वानों को और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।
उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और ध्र्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्राी और स्त्राीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’कहाती है, इससे विपरीत ‘अदेवपूजा’इनकी मूतियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।
‘शिक्षा’जिससे विद्या, सभ्यता, ध्र्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यिादि दोष छूटें, उसको होवे और अविद्यिादि दोष छूटें, उसको शिक्षा कहते हैं।
‘पुराण’जो ब्रह्मादि के बनाए, ऐतरेयादि ब्राह्मण-पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।