पतंजलि में दुनिया के लगभग 70 से ज्यादा देशों के लोग उपचार के लिए आ रहे हैं सामथ्र्यशाली हैं। उनके पास आधुनिक चिकित्सा कराने के सभी विकल्प हैं फिर भी वे आयुर्वेद व योग का प्राथमिकता से चयन करते हुए पतंजलि आ रहे हैं, ये बड़ी बात है। पतंजलि पूरे विश्व में आयुर्वेद का सबसे बड़ा संस्थान है, या यह कहें तो अतिश्योक्ति न होगी कि पतंजलि आज आयुर्वेद का पर्याय बन गया है।
योग जहां तक पहुंचा है, वहां तक लोग योग का पालन करें और जहां योग अभी नहीं पहुंचा है, उसका दायित्व भी उनका है जो योग के साधक हैं, जिन्होंने योग से स्वस्थ जीवन पाया है।
योग व आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ जीवन पद्धति है-
स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं
जो रोगी नहीं हैं वे रोगी न हों, इसके लिए दुनिया में कोई विधा हो सकती है तो वह योग व आयुर्वेद है। योग, आयुर्वेद न केवल चिकित्सा पद्धति हैं अपितु जीवन पद्धति हैं। आइए! हम सब मिलकर योग और आयुर्वेद को जीवन पद्धति बनाने का संकल्प लें। यह समय स्वदेशी को अपनाकर स्वालम्बी बनने का समय है। हम मानते हैं कि यदि हम अपने जीवन में योग व आयुर्वेद को अपनाते हैं तो हम स्वदेशी को स्वतः ही स्थान देते हैं।
मन प्रसन्न तो आत्मा प्रसन्न-
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थइतिअभिधीयते।
आरोग्य का अर्थ है स्वस्थ शरीर, प्रसन्न मन व आत्मा तथा स्वस्थ इंद्रियाँ। जब तक हमारा मन प्रसन्न नहीं है, अन्दर से आत्मा प्रसन्न नहीं है, हमारी इन्द्रियाँ स्वस्थ नहीं हैं, तो ऐसे शरीर का क्या? आरोग्य दुनियां में किसी औषधि से, किसी दवाई से, कहीं भी जायें, किसी पूजा-पाठ पद्धति से नहीं मिल सकता। केवल आंशिक फल ही मिल सकता है। किंतु यज्ञ एक ऐसा कर्म है, जो आपको अन्दर से भी शुद्ध करता है, अन्तर को निरोग करता है, प्रसन्नता को प्रदान करता है और जीवन में समृद्धि को लाता है।
यज्ञ जीवन की पवित्रता व निरोगिता के लिए आवश्यक- यह तो सभी जानते हैं कि योग से बीमारी जड़-मूल से समाप्त होती है। प.पूज्य स्वामी जी महाराज के अथक प्रयास से योग विधा आज पूरे विश्व में स्थापित करने का कार्य किया जा रहा है। योग के साथ-साथ यज्ञ को पतंजलि ने एक अभिन्न अंग बनाया है। क्योंकि ये पूरक है। यज्ञ जीवन की पवित्रता के साथ, जीवन की निरोगता के लिए है।
धर्मार्थ काम मोक्षाणां आरोग्यं मूलमुतमम्।-(चरक संहिता सूत्र 1/24)
यह तो मूल है, सबको निरोगी काया तो चाहिए ही, तभी तो सारी दुनियां हमको अच्छी लगेगी। संसार के सारे पुरुषार्थ में देह स्वस्थ हो तो दुनियां अच्छी लगती है। लेकिन जब देह ही स्वस्थ नहीं रहेगी, तो सब चीजें अच्छी नहीं लगती। इसलिए नित्य यज्ञ को अपनाना चाहिए।
योगमय जीवनशैली-कहा जाता है कि स्वस्थ व्यक्ति को ब्रह्म मुहूर्त में यानि सूर्योदय से 2 घंटे पहले अर्थात् लगभग 6 बजे सूर्य उदय होता है तो 4 बजे तक उठ जाना चाहिए। इस बात को हम बार-बार कहते हैं। वैसे तो एक स्वस्थ व्यक्ति को रात को 10 बजे सोना और सुबह 4 बजे उठ जाना चाहिए, लेकिन जो साधक होते हैं वो सुबह 3 बजे भी उठ जाते हैं। यानि हमारी जो निद्रा 6 घंटे या ज्यादा से ज्यादा 8 घंटे होनी चाहिए, इससे ज्यादा नहीं। कुल मिलाकर लगभग प्रातःकाल 5 बजे से पहले हमें उठ ही जाना चाहिए। क्योंकि अष्टांग संग्रह में बहुत ही अच्छे शब्दों में लिखा गया है कि ब्रह्म मुहूर्त उत्तिष्ठेज्जीर्णाजीर्ण निरूपयन। यानि कि यह समय बहुत ही शुभ माना जाता है। सुबह के वातावरण में शान्ति होती है, उस समय व्यक्ति बहुत सात्विक वातावरण में रहता है जिससे मन भी बहुत प्रसन्न रहता है।
बौद्धिक क्षमता परिष्कृत करने में संस्कृत व शास्त्र महत्वपूर्ण- प.पूज्य स्वामी जी महाराज बार-बार यह कहते हैं कि संस्कृत पढने से, शास्त्र पढ़ने से बुद्धि का विकास होता है या बौद्धिक क्षमता और ज्यादा परिष्कृत हो जाती है। संस्कृत को देव वाणी या देव भाषा कहते हैं, इससे लगता है कि इसमें इतनी विविधता और विविधता में भी गहराई, सरलता, सुगमता के साथ सुन्दता का जो समावेश है, वो अपने आप में अद्भुत है।
सकारात्मक सोच रखें- मुझसे सुखी कोई नहीं, जिस दिन आपके मन में ये भाव आ गया न, मैं सुखी हूं इन बातों का भरोसा करना सीखों। हमें जिन्दगी में सुकून से रहने की, मस्ती से रहने की आदत डालनी चाहिए। क्योंकि यदि आप अपनी सोच को सकारात्मक रखेंगे तो आपके आसपास का वातावरण भी धीरे-धीरे सकारात्मक हो जाएगा और यदि आप निगेटिव सोच के साथ जीयेंगे तो कुछ भी अच्छा होने वाला होगा तो वह भी आपसे दूर चला जायेगा। जीवन की जो प्रतिकूलताएं है, वह रोने से या चिल्लाने से दूर नहीं होती है। उसको भोगने से दूर होंगी, क्योंकि कर्म का जो फल है वह तो हमें भोगना होता ही है। जब व्यक्ति के पास सुख आता है तो मैंने मना नहीं किया था लेकिन जब दुःख आता है वो भी मनुष्य को भोगना होता है। बस सोच सकारात्मक रखने से व्यक्ति उस दुःख की घड़ी को भी आसानी से पार कर लेता है और सुख पुनः सकारात्मक सोच के साथ आता है।
धर्म धैर्य सिखाता है- धर्म हमको आंतरिक ताकत देता है और जो अन्दर से धार्मिक होता है, सच में जीवन के रहस्यों को वही जान सकता है। ऋषि दयानन्द जी से किसी ने पूछा कि हमको कैसे पता चलेगा कि यह व्यक्ति धार्मिक है या नहीं। उस पर उत्तर देते हुए दयानन्द जी बोले कि ये पता नहीं है कि वो धार्मिक है या नहीं, लेकिन इसको जानने का एक उपाय है। वह बोले जब जिन्दगी में विपत्ति आती है, कष्ट आता है, परेशानी आती है और व्यक्ति चारों तरफ से परेशानियों से घिर जाता है, तड़पता है, उस समय भी धार्मिक व्यक्ति शान्त रहेगा। ये धर्म का लक्षण है। धैर्य धर्म का पहला लक्षण है। हम यदि धार्मिक हैं तो भगवान की शक्ति हमारे पास है। अगर कोई आपके दुःख के क्षण में आपके पास है, तो वह है भगवान की ताकत जो आपको शक्ति प्रदान करती है। इसके पश्चात् आप स्वस्थ्य रहने के लिए पूरे आनन्द के साथ योग करें। आप पाएँगे कि सुःख आपके अन्दर ही है।