लवण रस की सात्म्यता रक्तप्रकोप (रक्तपित्त की अधिकता, खून में गर्मी का बढ़ना), तिमिर, रोग, तृष्णा (अति प्यास) करती है। इससे शुक्र की दुर्बलता, पालित्य (केशों का श्वेतपन) व बल की हानि होती है।
पक्तेरुपचयं काश्र्यं रौक्ष्यं शुक्रबलक्षयम्। पित्तानिलप्रवृद्धिं च कुर्यात् कटुकसात्म्यता।।
कटु (चरपरे) रस की सात्म्यता से पाचनशक्ति की वृद्धि होती है। इससे कृशता, रूक्षता, शुक्र व बल का क्षय तथा पित्त एवं वात की वृद्धि होती है।
क्लेदाल्पतां वातवृद्धिं दृष्टिहानिं कफक्षयम्। त्वग्विकारोपशान्तिं च जनयेत्ति क्तसात्म्यता।।
तिक्त रस की सात्म्यता से शरीर में आद्र्रता की अल्पता हो जाती है। इससे वात की वृद्धि, नेत्रदृष्टि की क्षीणता व कफक्षय होती है एवं त्वचा के विकारों का शमन होता है।
कफपित्तक्षयं वायोः प्रकोपं पक्तिमार्दवम्। कुर्याद्रक्तोपशान्तिं च कषायरससात्म्यता।।
कषाय रस की सात्म्यता से कफ व पित्त का क्षय, वात का प्रकोप, जठराग्नि की दुर्बलता व रक्तपित्त का शमन होता है।
ओजस्तेजो बलं वर्णमायुर्मेधा धृतिः स्मृतिः। जायते सौकुमार्यं च घृतसात्म्यस्य देहिनः।।
जिसे घृत सात्म्य हो अर्थात् खाने में घी अभ्यस्त होता है, उस व्यक्ति का ओज, तेज, बल, वर्ण, आयु, मेधा, धृति, स्मृति व सौकुमार्य (सुकुमारता/ कोमलता/ कान्तियुक्तता) बढ़ता है।
इसी प्रकार क्षीरसात्म्य व्यक्ति को भी उपरोक्त गुण प्राप्त होते हैं। क्षीर (दूध) परम रसायन होता है। इसका सेवन करने वाला व्यक्ति दृढ़ व पुष्ट शरीर वाला, मोटापे से रहित व श्रम करने में समर्थ होता है।
स शनैर्हितमादद्यादहितं च शनैस्त्यजेत्।
हितकर पदार्थों को सात्म्य करने के लिए धीरे-धीरे उनका सेवन आरम्भ करना चाहिए तथा अहितकर पदार्थों का धीरे-धीरे परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार ये सात्म्य हो जाते हैं। किसी पदार्थ का निरन्तर व दीर्घकाल तक सेवन उसे सात्म्य बना देता है।
आदौ तु स्निग्धमधुरं विचित्रं मध्यतस्तथा।।
रूक्षद्रवावसानं च भुंजानो नावसीदति।
भोजन के आरम्भ में स्निग्ध व मधुर पदार्थ लेने चाहिए। मध्य में विचित्र अर्थात् नाना स्वाद वाले पदार्थ लेने चाहिए। भोजन के अन्त मंे रूक्ष व द्रव पेय पदार्थ लेने चाहिए। इस क्रम से भोजन करने वाला व्यक्ति स्वस्थ रहता है तथा रोगजन्य कष्ट नहीं पाता है।