शीतीकरोति चान्नाद्यं भुंजानोऽतिविलम्बितम्। भुड्क्ते बहु च शीतं च न तृप्तिमधिगच्छति।। शैत्याद्वहुत्वाद्वैरस्याद् भुक्तं क्लेशेन पच्यते।
अति विलम्बपूर्वक भोजन न करना- बहुत धीरे-धीरे भोजन करने से सारा अन्न शीतल हो जाता है। अन्न अधिक मात्रा में खाया जाता है व तृप्ति भी नहीं होती है। इस प्रकार खाने से भोजन के शीतल, मात्रा से अधिक व विरस हो जाने के कारण पचने में कठिनाई होती है।
अत्युष्णभोजनाज्जिह्वाकण्ठौष्ठहृदयोदरम्।। दह्यते न रसं वेत्ति रोगांश्चाप्नोति दारुणान्। मुखाक्षिपाक-वैसर्प-रक्तपत्ति-भ्रमज्वरान्।।
अत्युष्ण भोजन न करना- अति उष्ण भोजन करने से जिह्वा, कण्ठ, ओष्ठ, हृदय तथा उदर में जलन होती है, भोजन के रस की ठीक से अनुभूति नहीं होती। अति उष्ण भोजन से मुखपाक (मुँह का पकना), अक्षिपाक, विसर्प, रक्तपित्त, भ्रम तथा ज्वर आदि भयंकर रोग हो जाते हैं।
अतिशीताशिनः शूलं ग्रहणीमार्दवं घृणा। कफवाताभिवृद्धिश्च कासो हिक्का च जायते।।
अतिशीतल भोजन न करना- अतिशीतल भोजन करने वाले व्यक्ति को शूल, ग्रहणी की मृदुलता, घृणा, कफ व वात की वृद्धि, कास एवं हिक्का आदि रोग हो जाते हैं।
रूक्ष भोजन न करना- रूख भोजन से विष्टम्भ, उदावर्त, विवर्णता व ग्लानि होती है तथा मात्रा से अधिक खाया जाता है। रूक्ष भोजन से वायु का प्रकोप तथा जलीय अंश के अभाव में मूल का अवरोध हो जाता है।
अतिभोजन न करना- अत्यधिक मात्रा में भोजन करने वाले व्यक्तियों को विष्टम्भ, उद्वेष्टन, क्लेश, चेष्टाहानि (निष्क्रि- यता) तथा विसूचिका (हैजा) आदि रोग हो जाते हैं।